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आंग्कोर वाट किंवा आंगकोर वट हे आंग्कोर, कंबोडिया येथील राजा सूर्यवर्मन दुसरा याच्या कारकीर्दीत बांधले गेलेले बाराव्या शतकातील हिंदू मंदिर आहे. अप्रतिम स्थापत्यशास्त्र आणि भव्य शिल्पकलांचा नमुना म्हणून ओळखले जाणारे आंग्कोरवाट हे मध्ययुगात 'व्रह विष्णूलोक]]' (गृह विष्णूलोक]]?) म्हणून ओळखले जाई. ख्मेर स्थापत्त्यशास्त्राचा उत्कृष्ट नमुना म्हणून सुस्थितीत असणारे आंग्कोरवाट ही एकमेव वास्तू आहे.

आंग्कोर वाट 
Hindu/Buddhist temple complex in Cambodia
माध्यमे अपभारण करा
  विकिपीडिया
प्रकारबौद्ध मंदिर,
पुरातत्व स्थळ,
मंदिर,
पर्यटन स्थळ
ह्याचा भागआंग्कोर,
Angkor
Patron saint
स्थान सिएम रीप प्रांत, कंबोडिया
स्थापत्यशास्त्रातील शैली
  • Thai architecture
  • Dravidian architecture
रचनाकार
  • Suryavarman II
येथे उल्लेख आहे
  • Illusion of Gaia
वर आधारीत
स्थापना
समुद्रसपाटीपासूनची उंची
  • ६५ m
धर्म
Map१३° २४′ ४५″ N, १०३° ५२′ ००″ E
अधिकार नियंत्रण
साचा:Translations:Template:Wikidata Infobox/i18n/msg-editlink-alttext/mr


आंग्कोर वाटचे अवकाशचित्र

या मंदिराचे बांधकाम हिंदू पुराणातील क्षीरसागराच्या मंथनाचा प्रसंग दर्शविण्यासाठी केले गेले आहे. मंदिराची मुख्य इमारत मेरू पर्वताची प्रतिकृती मानली जाते तर सभोवतीचा पाण्याचा खंदक क्षीरसागर मानला जातो.

इतिहास

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नाग काजवाटेवरून दिसणारे मंदिराचे मुख्यद्वार

कंबोडियाच्या मध्यभागी असणाऱ्या आंग्कोर या प्राचीन ख्मेर राजधानीच्या भग्नावशेषांत आंग्कोर वाटचे सुस्थितीतील मंदिर आजही उठून दिसते. संस्कृत "नगर" या शब्दाचे अपभ्रष्ट ख्मेर रूप "नोकोर"वरून नंतर "आंग्कोर"ची व्युत्पत्ती झाली व "वाटिका" या शब्दापासून "वाट" या शब्दाची निर्मिती झाली असा इतिहास वाचण्यास मिळतो. हिंदू व बौद्ध स्थापत्यशास्त्रांचा उपयोग करून बांधलेले आंग्कोर वाट हे भगवान विष्णूंचे जगातील सर्वांत मोठे मंदिर समजले जाते. या मंदिराची निर्मिती भारतीय खगोलशास्त्राचे नियम वापरून करण्यात आली आहे असेही सांगितले जाते.

ख्मेर राज्यकर्ता यशोवर्मन पहिला याने सुमारे इ.स. ८८९च्या काळात टोन्ले सॅप सरोवराच्या उत्तरेला यशोधरापुर नावाची आपली राजधानी स्थापन केली. या नगराच्या सभोवती त्याने खंदक खोदून नगराला सुरक्षित बनवले. कालांतराने या शहरालाच आंग्कोर म्हणले जाऊ लागले. यशोवर्मननंतरच्या सर्व राजांनी आपापल्या परीने या नगरात बांधकाम करून त्याची शोभा वाढवली. आंग्कोर वाटची स्थापना सूर्यवर्मन दुसरा (राज्यकाळ: इ.स. १११३- इ.स. ११४५) याच्या काळात सुरू झाली. सूर्यवर्मनचा राज्यकाळ तसा धामधुमीचा गेला, तरीही सुमारे ३७ वर्षे हे बांधकाम अखंडित चालले. राजा सूर्यवर्मनच्या मृत्यूनंतर हे काम सततच्या युद्धांमुळे व आक्रमणांमुळे थांबून राहिले. पुढे जयवर्मन सातवा (राज्यकाळ: इ.स. ११८१- इ.स. १२१९) याच्या काळात बांधकाम पुन्हा रुजू करण्यात आले. परंतु या वेळेपर्यंत कंबोडियात थेरवाद बौद्धधर्माचा प्रसार झाल्याने बांधकामात बौद्ध स्थापत्यशास्त्राचा प्रभाव आढळतो.

मंदिराचे बांधकाम

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आंग्कोर वाटचे मंदिर सर्व बाजूंनी पाण्याच्या खंदकांनी वेढलेले असल्याने कालांतराने या भागांत चहूबाजूंनी जंगल वाढले तरीही ते फारशी पडझड न होता सुरक्षित राहिले. या मंदिराच्या बांधकामात हिंदू आणि बौद्ध शिल्पकलांचा सुरेख संगम झाला आहे.

 
मंदिराची प्रतिकृती

हे मंदिर पश्चिमाभिमुख असून त्यातील मुख्य देवालय हिंदू पुराणातील मेरू पर्वताची प्रतिकृती मानले जाते. या स्थानाची लांबीरुंदी १५०० मीटर x १३०० मीटर असून ते जमीनीच्या तीन स्तरांवर (वेगवेगळ्या उंचीच्या तीन प्रांगणांत) बांधलेले आहे. मुख्य मंदिराच्या सभोवती पाच गोपुरांच्या शिल्पकलेने सुशोभित अशा सुरेख भिंती आहेत. या भिंती मेरूपर्वताला घातलेल्या वासुकीच्या विळख्याचे प्रतीक समजल्या जातात. गोपुरांच्या बुरुजांवर ब्रह्मदेवाचे मुख कोरलेले असून पायाजवळ कोरलेले त्रिमुखी हत्ती प्रत्येक सोंडेत कमलपुष्प धरून प्रवेशद्वारांची शोभा वाढवतात. मुख्य देवळापासून चौथ्या भिंतीसभोवती खणलेल्या खंदकाला क्षीरसागराचे प्रतीक समजतात. मंदिराची सर्वांत बाहेरील भिंत ४.५ मीटर उंचीची असून पश्चिम दिशेकडून तिच्या पुढयातील सुमारे २०० मीटर लांबीच्या खंदकाला सुमारे ३५० मीटर लांबीच्या आणि १२ मीटर रुंदीच्या काजवाटेने (causeway) जमिनीशी जोडलेले आहे. पूर्वेकडूनही अशीच कच्ची काजवाट असून ती पूर्वी बांधकामाचे दगड वाहून नेण्यास व इतर वाहतुकीसाठी वापरली जात असावी.

हे संपूर्ण मंदिर वालुकाश्माच्या (sandstone) प्रस्तरापासून बनवले असून हे पत्थर अनेक मैल दूर असलेल्या खाणीतून कोरून मंदिराच्या जागी आणल्याचा पुरावा मिळतो. मंदिराचे बांधकाम व कलाकुसर पाहून हजारो गुलामांची, विशारदांची व कारागिरांची फौज या कामी लागली असावी असा अंदाज बांधता येतो.

मंदिराच्या भिंतींवर व गोपुरांवर अनेक देवतांच्या व अप्सरांच्या मूर्ती कोरलेल्या आहेत. या गोपुरांना "हत्ती दरवाजे" असेही म्हणले जाते कारण हे दरवाजे हत्तींची सहज ये-जा होण्याइतपत मोठे आहेत. ही गोपुरे ओलांडून आतील प्रांगणात आले असता सर्वप्रथम मुख्य मार्गाच्या उभय बाजूस दोन लहान इमारती आढळतात. त्यांना ग्रंथालये असे म्हणले जाते. यांचा उपयोग नक्की कशासाठी होत असावा याबद्दल शंका असली तरी पुरोहितवर्गाने एकत्र बसून पठण करण्याचे ते स्थान असावे असे समजले जाते. या ग्रंथालयांच्या भिंतीवर प्राचीन ख्मेर भाषेत कोरलेले शिलालेख आढळून येतात. यांत रामायण महाभारतातील संस्कृत श्लोक उद्धृत केलेले आहेत.

हे मंदिर पश्चिमाभिमुख असण्याचे एक कारण असे सांगितले जाते की राजा सूर्यवर्मन याने आपले मृत्यूपश्चात आपले स्मारक राहावे या हेतूने मंदिराची स्थापना केली. या कारणास्तव या मंदिराला 'पिरॅमिड टेंपल' असेही संबोधले जाते. तसेच वैकुंठाला जाणारा मार्ग पश्चिमेकडे आहे असे मानल्याने या देवळाचे प्रमुख प्रवेशद्वार हे इतर हिंदू देवळांप्रमाणे पूर्वेला नसून पश्चिमेला बांधलेले आहे. काही तज्ज्ञांचा या संकल्पनेस विरोध आहे कारण अशी मंदिरे बांधण्याची प्रथा हिंदू धर्मात इतरत्र दिसून येत नाही तर भारतात काही मंदिरे पश्चिमाभिमुख आढळतात.

 
क्षीरसागराच्या मंथनाचा कोरलेला प्रसंग (समुद्रमंथन). या लेण्यात विष्णू मध्यभागी असून कूर्म हे कासव पायथ्याशी आहे. असूरदेव हे डावी व उजवीकडे असून आकाशातून अप्सराइंद्र हे दृष्य पाहत आहेत.

या स्थानाच्या तिसऱ्या आणि सर्वांत उंचावरील प्रांगणात पाच मुख्य मंदिरे आहेत. त्यातील मध्यावरील प्रमुख मंदिरात पोहोचण्यासाठी तीन आयताकृती सज्जे पार करावे लागतात. प्रत्येक सज्जाच्या भिंतींवर व खांबांवर सुरेख कोरीव नक्षीकाम (bas-relief) केलेले आहे. सर्वांत बाहेरील सज्जावर रामायण व महाभारतातल्या अनेक प्रसंग कोरलेले आहेत. यांत राम-रावण यांच्यातील युद्ध तसेच कौरव-पांडव युद्ध यांचा समावेश आहे. दक्षिणेकडील सज्जावर राजा सूर्यवर्मनची मिरवणूक जाताना कोरली आहे तर पूर्वेकडील सज्जावर देव व असुर यांच्यातील मेरूपर्वताच्या साहाय्याने क्षीरसागर घुसळण्याच्या समुद्रमंथनाचा प्रसंग कोरलेला आहे. याखेरीज भगवान विष्णूंनी केलेला असुरांचा पराभव, श्रीकृष्णाने केलेला बाणासुराचा वध अशी अनेक रेखीव शिल्पे कोरलेली आहेत. बौद्धकाळात निर्मिलेल्या एका सज्जात भगवान बुद्धांच्या अनेक मूर्तीही आढळतात.

 
खेळातील फाशावरील पाचाची आकृती (quincunx)

या भिंती ओलांडून आत आले की पायऱ्या चढून मुख्य मंदिराकडे जाता येते. येथे पुन्हा एकदा मार्गाच्या उभय बाजूंस ग्रंथालये आढळतात. त्यानंतर पाच मुख्य देवळांचा समूह (quincunx – 'फाशावरील पाचाचा आकडा') दिसतो. कोणत्याही मंगलस्थानी चार दिशांना चार स्तंभ किंवा इमारती उभ्या करून चतुःसीमा निश्चित करणे व मध्यभागी असणाऱ्या वास्तूला/ इमारतीला संरक्षण देणे किंवा तिचे महत्त्व वाढवणे ही वैदिक परंपरा आहे. (उदा. सत्यनारायणाच्या पूजेतील चार खांब व मध्यभागी कलश) या मंदिरांची बांधणीही त्यानुसारच झाल्याचे दिसते. या पाचही मंदिरांतील मध्यावरील मंदिराचा कळस सर्वांत उंच असून ते मेरूपर्वताचे प्रतीक समजले जाते. सर्व मंदिरांच्या भिंतींवर अतिशय नाजूक कोरीव काम केलेले आहे. या भिंतींवर प्रामुख्याने देवदेवतांच्या सुबक प्रतिमा कोरलेल्या आहेत. मुख्य मंदिरात पूर्वी भगवान विष्णूंची मूर्ती होती, परंतु बौद्धधर्म स्वीकारल्यावर ती मूर्ती बदलून त्या स्थानी आता बुद्धाच्या मूर्ती आढळतात.

आंग्कोर शहरांत आंग्कोर वाट शिवाय तत्कालीन ख्मेर राजांनी बांधलेली अनेक रेखीव मंदिरे आहेत. राजा हा देवाचा अंश असल्याने देवाची सेवा, प्रार्थना व कर्मकांड याला या समाजात फार महत्त्व असल्याचे दिसते. यांतून देवाशी, राजाशी आणि त्यायोगे राज्याशी एकरूपता व एकसंधता साधण्यास फार मोठी मदत झाली असावी असे वाटते. ख्मेर घराण्याच्या शेकडो वर्षे चाललेल्या राज्यकारभाराला या मंदिरांनी फार मोठा हातभार लावला असावा.

संदर्भ

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  • कंबोडिया - मॉडर्न नेशन्स ऑफ द वर्ल्ड - रॉबर्ट ग्रीन
  • कंबोडिया - ए कंट्री स्टडी - फेडरल रिसर्च डिव्हिजन - लायब्ररी ऑफ काँग्रेस
  • द सेव्हन्टी वंडर्स ऑफ द एंशन्ट वर्ल्ड

बाह्य दुवे

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