"मनाचे श्लोक" च्या विविध आवृत्यांमधील फरक

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ओळ १३:
गमूं पंथ आनंत या राघवाचा॥१॥
 
मना सज्जना भक्तिपंथेचिभक्तिपंथेंचि जावें।
 
तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावें॥
 
जनीं निंद्य तें सर्व सोडुनिसोडूनि द्यावें।
 
जनीं वंद्य तेतें सर्व भावें करावे॥२॥करावें॥२॥ ===
 
प्रभाते मनीं राम चिंतीत जावा।
ओळ २९:
जनीं तोचि तो मानवी धन्य होतो॥३॥
 
मना, वासना दुष्ट कामा न ये रे।
 
मना, सर्वथा, पापबुद्धी नको रे॥
 
मना सर्वथाधर्मता, नीति, सोडूं नको हो।
 
मना, अंतरीं सार वीचार राहो॥४॥
 
मना, पापसंकल्प सोडूनि द्यावा।
 
मना, सत्यसंकल्प जीवीं धरावा॥
 
मना कल्पना ते नको वीषयांची।
ओळ ४५:
विकारें घडे हो जनीं सर्व ची ची॥५॥
 
नको रे मना, क्रोध हा खेदकारी।
 
नको रे मना, काम नाना विकारी॥
 
नको रे मना सर्वदा अंगिकारू।
 
नको रे मना, मत्सरू दंभ भारू॥६॥
 
मना, श्रेष्ठ धारिष्ट जीवीं धरावें।
 
मना, बोलणें नीच सोशीत जावें॥
 
स्वयें सर्वदा नम्र वाचेवाचें वदावे।
 
मना, सर्व लोकांसि रे नीववावें॥७॥
 
देहे त्यागितां कीर्ति मागें उरावी।
ओळ ७१:
नको रे मना द्रव्य ते पूढिलांचें।
 
अति स्वार्थबुद्धी नुरेन रे पाप सांचे॥
 
घडे भोगणें पाप ते कर्म खोटें।
ओळ ९९:
मना सर्वथा शोक चिंता नको रे॥
 
विवेके देहेबुद्धिदेहे बुद्धि सोडूनि द्यावी।
 
विदेहीपणें मुक्ति भोगीत जावी॥१२॥
ओळ १०७:
अकस्मात तें राज्य सर्वै बुडालें॥
 
म्हणोनी कुडी वासना सांडसांडि वेगीं।
 
बळेबळें लागला काळ हा पाठिलागीं॥१३॥
 
जिवा कर्मयोगेकर्मयोगें जनीं जन्म जाला।
 
परी शेवटीं काळमूखीं निमाला॥
 
महाथोर ते मृत्युपंथेचिमृत्युपंथेंचि गेले।
 
कितीएक ते जन्मले आणि मेले॥१४॥
 
मना, पाहतां सत्य हे मृत्युभूमी।
 
जितां बोलती सर्वही जीव मी मी॥
ओळ १३३:
पुरेना जनीं लोभ रे क्षोभ त्यातें।
 
म्हणोनी जनीं मागुता जन्म घेते॥१६॥घेतें॥१६॥
 
मनीं मानवामानव व्यर्थ चिंता वहाते।वहातें।
 
अकस्मात होणार होऊनि जाते॥जातें॥
 
घडेंघडे भोगणेभोगणें सर्वही कर्मयोगे।कर्मयोगें।
 
मतीमंद तें खेद मानी वियोगें॥१७॥
 
मना, राघवेंवीण आशा नको रे।
 
मना, मानवाची नको कीर्ति तूं रे॥
 
जया वर्णिती वेद-शास्त्रेशास्त्रें-पुराणें।
 
तया वर्णितां सर्वही श्लाघ्यवाणे॥१८॥
 
मना, सर्वथा सत्य सांडूं नको रे।
 
मना, सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे॥
 
मना, सत्य ते सत्य वाचेवाचें वदावे।
 
मना मिथ्य तें मिथ्य सोडुनिसोडूनि द्यावें॥१९॥
 
बहू हिंपुटी होईजे मायपोटी।