"मनाचे श्लोक" च्या विविध आवृत्यांमधील फरक

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[[समर्थ रामदास स्वामी| समर्थ रामदास स्वामींनी रचलेले]]
 
॥ '''मनाचे श्लोक''' ॥
==१-१०==
गणाधीश जो ईश सर्वां गुणांचा।
 
मुळारंभ आरंभ तो निर्गुणाचा॥
 
नमूं शारदा मूळ चत्वार वाचा।
 
गमूं पंथ आनंत या राघवाचा॥१॥
 
मना सज्जना भक्तिपंथेंचि जावें।
 
तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावें॥
 
जनीं निंद्य तें सर्व सोडूनि द्यावें।
 
जनीं वंद्य तें सर्व भावें करावें॥२॥ ===
 
प्रभाते मनीं राम चिंतीत जावा।
 
पुढें वैखरी राम आधीं वदावा॥
 
सदाचार हा थोर सांडूं नये तो।
 
जनीं तोचि तो मानवी धन्य होतो॥३॥
 
मना, वासना दुष्ट कामा न ये रे।
 
मना, सर्वथा, पापबुद्धी नको रे॥
 
मना धर्मता, नीति, सोडूं नको हो।
 
मना, अंतरीं सार वीचार राहो॥४॥
 
मना, पापसंकल्प सोडूनि द्यावा।
 
मना, सत्यसंकल्प जीवीं धरावा॥
 
मना कल्पना ते नको वीषयांची।
 
विकारें घडे हो जनीं सर्व ची ची॥५॥
 
नको रे मना, क्रोध हा खेदकारी।
 
नको रे मना, काम नाना विकारी॥
 
नको रे मना सर्वदा अंगिकारू।
 
नको रे मना, मत्सरू दंभ भारू॥६॥
 
मना, श्रेष्ठ धारिष्ट जीवीं धरावें।
 
मना, बोलणें नीच सोशीत जावें॥
 
स्वयें सर्वदा नम्र वाचें वदावे।
 
मना, सर्व लोकांसि रे नीववावें॥७॥
 
देहे त्यागितां कीर्ति मागें उरावी।
 
मना सज्जना हेचि क्रीया धरावी॥
 
मना चंदनाचे परी त्वां झिजावें।
 
परी अंतरीं सज्जना नीववावें॥८॥
 
नको रे मना द्रव्य ते पूढिलांचें।
 
अति स्वार्थबुद्धी न रे पाप सांचे॥
 
घडे भोगणें पाप ते कर्म खोटें।
 
न होतां मनासारिखें दुःख मोठें॥९॥
 
सदा सर्वदा प्रीती रामीं धरावी।
 
सुखाची स्वयें सांडि जीवीं करावी॥
 
देहेदुःख ते सूख मानीत जावें।
 
विवेकें सदा स्वस्वरूपीं भरावें॥१०॥
 
==११-२०==
 
जनीं सर्वसूखी असा कोण आहे।
 
विचारें मना तूंचि शोधूनि पाहें॥
 
मना त्वांचि रे पूर्वसंचीत केलें।
 
तयासारिखे भोगणें प्राप्त जालें ॥११॥
 
मना मानसीं दुःख आणूं नको रे।
 
मना सर्वथा शोक चिंता नको रे॥
 
विवेके देहे बुद्धि सोडूनि द्यावी।
 
विदेहीपणें मुक्ति भोगीत जावी॥१२॥
 
मना सांग पां रावणा काय जालें।
 
अकस्मात तें राज्य सर्वै बुडालें॥
 
म्हणोनी कुडी वासना सांडि वेगीं।
 
बळें लागला काळ हा पाठिलागीं॥१३॥
 
जिवा कर्मयोगें जनीं जन्म जाला।
 
परी शेवटीं काळमूखीं निमाला॥
 
महाथोर ते मृत्युपंथेंचि गेले।
 
कितीएक ते जन्मले आणि मेले॥१४॥
 
मना, पाहतां सत्य हे मृत्युभूमी।
 
जितां बोलती सर्वही जीव मी मी॥
 
चिरंजीव हे सर्वही मानिताती।
 
अकस्मात सांडूनियां सर्व जाती॥१५॥
 
मरे एक त्याचा दुजा शोक वाहे।
 
अकस्मात तोही पुढे जात आहे॥
 
पुरेना जनीं लोभ रे क्षोभ त्यातें।
 
म्हणोनी जनीं मागुता जन्म घेतें॥१६॥
 
मनीं मानव व्यर्थ चिंता वहातें।
 
अकस्मात होणार होऊनि जातें॥
 
घडे भोगणें सर्वही कर्मयोगें।
 
मतीमंद तें खेद मानी वियोगें॥१७॥
 
मना, राघवेंवीण आशा नको रे।
 
मना, मानवाची नको कीर्ति तूं रे॥
 
जया वर्णिती वेद-शास्त्रें-पुराणें।
 
तया वर्णितां सर्वही श्लाघ्यवाणे॥१८॥
 
मना, सर्वथा सत्य सांडूं नको रे।
 
मना, सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे॥
 
मना, सत्य ते सत्य वाचें वदावे।
 
मना मिथ्य तें मिथ्य सोडूनि द्यावें॥१९॥
 
बहू हिंपुटी होईजे मायपोटी।
 
नको रे मना यातना तेचि मोठी॥
 
निरोधें पचे कोंडिले गर्भवासी।
 
अधोमूख रे दुःख त्या बाळकासीं॥२०॥
 
==२१-३०==
 
मना वासना चुकवीं येरझारा।
 
मना कामना सांडी रे द्रव्यदारा॥
 
मना यातना थोर हे गर्भवासीं।
 
मना सज्जना भेटवीं राघवासीं॥२१॥
 
मना सज्जना हीत माझें करावें।
 
रघुनायका दृढ चित्ती धरावें॥
 
महाराज तो स्वामी वायुसुताचा।
 
जना उद्धरी नाथ लोकत्रयाचा॥२२॥
 
न बोलें मना राघवेवीण कांहीं।
 
जनी वाउगें बोलता सुख नाहीं॥
 
घडिने घडी काळ आयुष्य नेतो।
 
देहांतीं तुला कोण सोडूं पहातो?॥२३॥
 
रघुनायकावीण वांया शिणावे।
 
जनासारिखे व्यर्थ कां वोसणावें॥
 
सदा सर्वदा नाम वाचे वसो दे।
 
अहंता मनी पापिणी ते नसो दे॥२४॥
 
मना वीट मानूं नको बोलण्याचा।
 
पुढें मागुता राम जोडेल कैंचा॥
 
सुखाची घडी लोटतां सूख आहे।
 
पुढें सर्व जाईल कांही न राहे॥२५॥
 
देहेरक्षणाकारणें यत्न केला।
 
परी शेवटीं काळ घेउन गेला॥
 
करीं रे मना भक्ति या राघवाची।
 
पुढें अंतरीं सोडीं चिंता भवाची॥२६॥
 
भवाच्या भये काय भीतोस लंडी।
 
धरीं रे मना धीर धाकासि सांडी॥
 
रघूनायकासारिखा स्वामी शीरीं।
 
नुपेक्षी कदा कोपल्या दंडधारी॥२७॥
 
दिनानाथ हा राम कोदंडधारी।
 
पुढें देखतां काळ पोटीं थरारी॥
 
मना वाक्य नेमस्त हे सत्य मानीं।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥२८॥
 
पदी राघवाचे सदा ब्रीद गाजे।
 
वळें भक्तरीपूशिरी कांबि वाजे॥
 
पुरी वाहिली सर्व जेणे विमानीं।
 
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी॥२९॥
 
समर्थाचिया सेचका वक्र पाहे।
 
असा सर्व भूमंडळी कोण आहे॥
 
जयाची लिला वर्णिती लोक तीन्ही।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३०॥
 
==३१-४०==
 
महासंकटी सोडिले देव जेणें।
 
प्रतापे बळे आगळा सर्वगूणे॥
 
जयाते स्मरे शैलजा शूलपाणी।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३१॥
 
अहल्या शिळा राघवें मुक्त केली।
 
पदीं लागतां दिव्य होऊनि गेली॥
 
जया वर्णितां शीणली वेदवाणी।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३२॥
 
वसे मेरुमांदार हे सृष्टिलीला ।
 
शशी सूर्य तारांगणे मेघमाला॥
 
चिरंजीव केले जनी दास दोन्ही।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३३॥
 
उपेक्षी कदा रामरूपी असेना।
 
जिवां मानवां निश्चयो तो वसेना॥
 
शिरी भार वाहेन बोले पुराणीं।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३४॥
 
असे हो जया अंतरी भाव जैसा।
 
वसे हो तया अंतरी देव तैसा॥
 
अनन्यास रक्षीतसे चापपाणी।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३५॥
 
सदा सर्वदा देव सन्निध आहे।
 
कृपाळूपणे अल्प धारीष्ट पाहे॥
 
सुखानंद आनंद कैवल्यदानी।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३६॥
 
सदा चक्रवाकासि मार्तंड जैसा।
 
उडी घालितो संकटी स्वामी तैसा॥
 
हरीभक्तिचा घाव गाजे निशाणी।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥३७॥
 
मना प्रार्थना तुजला एक आहे।
 
रघूराज थक्कीत होऊनि पाहे॥
 
अवज्ञा कदा हो यदर्थी न कीजे।
 
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे॥३८॥
 
जया वर्णिती वेद शास्त्रे पुराणे।
 
जयाचेनि योगें समाधान बाणे॥
 
तयालागिं हें सर्व चांचल्य दीजे।
 
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे॥३९॥
 
मना पाविजे सर्वही सूख जेथे।
 
अति आदरें ठेविजे लक्ष तेथें॥
 
विविकें कुडी कल्पना पालटीजे।
 
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे॥४०॥
 
==४१-५०==
 
बहू हिंडतां सौख्य होणार नाहीं।
 
शिणावे परी नातुडे हीत कांहीं॥
 
विचारें बरें अंतरा बोधवीजे।
 
मना सज्जना राघवीं वस्ति कीजे॥४१॥
 
बहुतांपरी हेंचि आतां धरावें।
 
रघूनायका आपुलेसे करावें॥
 
दिनानाथ हें तोडरीं ब्रीद गाजे।
 
मना सज्जना राघवीं वस्ति कीजे॥४२॥
 
मना सज्जना एक जीवीं धरावें।
 
जनी आपुलें हीत तुवां करावें॥
 
रघूनायकावीण बोलो नको हो।
 
सदा मानसीं तो निजध्यास राहो॥४३॥
 
मना रे जनीं मौनमुद्रा धरावी।
 
कथा आदरे राघवाची करावी॥
 
नसें राम ते धाम सोडुनि द्यावे।
 
सुखालागिं आरण्य सेवीत जावे॥४४॥
 
जयाचेनि संगे समाधान भंगे।
 
अहंता अकस्मात येऊनि लागे॥
 
तये संगतीची जनीं कोण गोडी।
 
जिये संगतीनें मती राम सोडी॥४५॥
 
मना जे घडी राघवेवीण गेली।
 
जनीं आपुली ते तुवां हानि केली॥
 
रघूनायकावीण तो शीण आहे।
 
जनी दक्ष तो लक्ष लावूनि पाहे॥४६॥
 
मनीं लोचनीं श्रीहरी तोचि पाहे।
 
जनीं जाणतां मुक्त होऊनि राहे॥
 
गुणीं प्रीति राखे क्रमू साधनाचा।
 
जगीं धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥४७॥
 
सदा देवकाजीं झिजे देह ज्याचा।
 
सदा रामनामें वदे नित्य साचा॥
 
स्वधर्मेचि चाले सदा उत्तमाचा।
 
जगीं धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥४८॥
 
सदा बोलण्यासारिखे चालताहे।
 
अनेकीं सदा एक देवासि पाहे॥
 
सगूणी भजे लेश नाही भ्रमाचा।
 
जगीं धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥४९॥
 
नसे अंतरी काम नानाविकारी।
 
उदासीन जो तापसी ब्रह्मचारी॥
 
निवाला मनीं लेश नाही तमाचा।
 
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥५०॥
 
==५१-६०==
 
मदें मत्सरें सांडिली स्वार्थबुद्धी।
 
प्रपंचीक नाहीं जयातें उपाधी॥
 
सदा बोलणे नम्र वाचा सुवाचा।
 
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥५१॥
 
क्रमी वेळ जो तत्त्वचिंतानुवादे।
 
न लिंपे कदा दंभ वादे विवादे॥
 
करी सूखसंवाद जो ऊगमाचा।
 
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥५२॥
 
सदा आर्जवी प्रिय जो सर्व लोकीं।
 
सदा सर्वदा सत्यवादी विवेकी॥
 
न बोले कदा मिथ्य वाचा त्रिवाचा।
 
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥५३॥
 
सदा सेवी आरण्य तारुण्यकाळीं।
 
मिळेना कदा कल्पनेचेनि मेळी॥
 
चळेना मनीं निश्चयो दृढ ज्याचा।
 
जगीं धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥५४॥
 
नसे मानसीं नष्ट आशा दुराशा।
 
वसे अंतरीं प्रेमपाशा पिपाशा॥
 
ऋणी देव हा भक्तिभावे जयाचा।
 
जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥५५॥
 
दिनाचा दयाळु मनाचा मवाळू।
 
स्नेहाळू कृपाळू जनीं दासपाळू॥
 
तया अंतरी क्रोध संताप कैंचा।
 
जगीं धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा॥५६॥
 
जगीं होइजे धन्य या रामनामे।
 
क्रिया भक्ति उपासना नित्य नेमे॥
 
उदासीनता तत्त्वता सार आहे।
 
सदा सर्वदा मोकळी वृत्ति राहे ॥५७॥
 
नको वासना विषयीं वृत्तिरूपें।
 
पदार्थी जडे कामना पूर्वपापें॥
 
सदा राम निष्काम चिंतीत जावा।
 
मना कल्पनालेश तोही नसावा॥५८॥
 
मना कल्पना कल्पितां कल्पकोटी।
 
नव्हे रे नव्हे सर्वथा रामभेटी॥
 
मनीं कामना राम नाही जयाला।
 
अती आदरे प्रीती नाही तयाला॥५९॥
 
मना राम कल्पतरू कामधेनू।
 
निधी सार चिंतामणी काय वानूं॥
 
जयाचेनि योगे घडे सर्व सत्ता।
 
तया साम्यता कायसी कोण आतां॥६०॥
 
==६१-७०==
 
उभा कल्पवृक्षातळीं दुःख वाहे।
 
तया अंतरीं सर्वदा तेचि आहे॥
 
जनी सज्जनी वाद हा वाढवावा।
 
पुढें मागता शोक जीवीं धरावा॥६१॥
 
निजध्यास तो सर्व तूटोनि गेला।
 
बळें अंतरीं शोक संताप ठेला॥
 
सुखानंद आनंद भेदें बुडाला।
 
मना निश्चयो सर्व खेदे उडाला॥६२॥
 
घरी कामधेनु पुढें ताक मागें।
 
हरीबोध सांडोनि वेवाद लागे॥
 
करी सार चिंतामणी काचखंडे।
 
तया मागतां देत आहे उदंडे॥६३॥
 
अती मूढ त्या द्दॄढ बुद्धि असेना।
 
अती काम त्या राम चित्ती वसेना॥
 
अती लोभ त्या क्षोभ होईल जाणा।
 
अती वीषयी सर्वदा दैन्यवाणा॥६४॥
 
नको दैन्यवाणें जिणे भक्तिऊणे।
 
अती मूर्ख त्या सर्वदा दुःख दूणे॥
 
धरीं रे मना आदरें प्रीति रामी।
 
नको वासना हेमधामीं विरामीं॥६५॥
 
नव्हे सार संसार हा घोर आहे।
 
मना सज्जना सत्य शोधूनि पाहे॥
 
जनीं विष खातां पुढे सूख कैचे।
 
करीं रे मना ध्यान या राघवाचें॥६६॥
 
घनश्याम हा राम लावण्यरूपी।
 
महाधीर गंभीर पूर्णप्रतापी॥
 
करी संकटीं सेवकांचा कुडावा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥६७॥
 
बळें आगळा राम कोदंडधारी।
 
महाकाळ विक्राळ तोही थरारी॥
 
पुढे मानवा किंकरा कोण केवा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥६८॥
 
सुखानंदकारी निवारी भयातें।
 
जनीं भक्तिभावे भजावे तयातें॥
 
विवेके त्यजावा अनाचार हेवा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥६९॥
 
सदा रामनामे वदा पूर्णकामें।
 
कदा बाधिजेना ऽऽ पदा नित्य नेमें॥
 
मदालस्य हा सर्व सोडोनि द्यावा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥७०॥
 
==७१-८०==
 
जयाचेनि नामें महादोष जाती।
 
जयाचेनि नामें गती पाविजेती॥
 
जयाचेनि नामें घडे पुण्यठेवा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥७१॥
 
न वेचे कदा ग्रंथचि अर्थ काही।
 
मुखे नाम उच्चारितां कष्ट नाहीं॥
 
महाघोर संसारशत्रू जिणावा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥७२॥
 
देहेदंडणेचे महादुःख आहे।
 
महादुःख तें नाम घेता न राहे॥
 
सदाशीव चिंतीतसे देवदेवा।
 
प्रभाते मनीं राम चिंतीत जावा॥७३॥
 
बहुतांपरी संकटे साधनांची।
 
व्रते दान उद्यापने ती धनाची॥
 
दिनाचा दयाळु मनी आठवावा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥७४॥
 
समस्तामधे सार साचार आहे।
 
कळेना तरी सर्व शोधून पाहे॥
 
जिवा संशयो वाउगा तो त्यजावा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥७५॥
 
नव्हे कर्म ना धर्म ना योग कांही।
 
नव्हे भोग ना त्याग ना सांग पाहीं॥
 
म्हणे दास विश्वास नामी धरावा।
 
प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा॥७६।
 
करी काम निष्काम या राघवाचे।
 
करी रूप स्वरूप सर्वां जिवांचे ॥
 
करी छंद निर्द्वंद्व हे गुण गातां।
 
हरीकीर्तनी वृत्तिविश्वास होतां॥७७॥
 
अहो ज्या नरा रामविश्वास नाहीं।
 
तया पामरा बाधिजे सर्व कांही॥
 
महाराज तो स्वामी कैवल्यदाता।
 
वृथा वाहणें देहसंसारचिंता॥७८॥
 
मना पावना भावना राघवाची।
 
धरी अंतरीं सोडीं चिंता भवाची॥
 
भवाची जिवा मानवा भूलि ठेली।
 
नसे वस्तुची धारणा व्यर्थ गेली॥७९॥
 
धरा श्रीवरा त्या हरा अंतराते।
 
तरा दुस्तरा त्या परा सागराते॥
 
सरा वीसरा त्या भरा दुर्भराते।
 
करा नीकरा त्या खरा मत्सराते॥८०॥
 
==८१-९०==
 
मना मत्सरे नाम सांडूं नको हो।
 
अती आदरे हा निजध्यास राहो॥
 
समस्तांमधे नाम हे सार आहे।
 
दुजी तूळणा तूळितांही न साहे॥८१॥
 
बहु नाम या रामनामी तुळेना।
 
अभाग्या नरा पामरा हे कळेंना॥
 
विषा औषधा घेतले पार्वतीशे।
 
जिवा मानवा किंकरा कोण पुसे॥८२॥
 
जेणे जाळिला काम तो राम ध्यातो।
 
उमेसी अति आदरें गुण गातो॥
 
बहु ज्ञान वैराग्य सामर्थ्य जेथें।
 
परी अंतरी नामविश्वास तेथें॥८३॥
 
विठोने शिरी वाहिला देवराणा।
 
तया अंतरी ध्यास रे त्यासि नेणा॥
 
निवाला स्वये तापसी चंद्रमौळी।
 
जिवा सोडवी राम हा अंतकाळीं॥८४॥
 
भजा राम विश्राम योगेश्वरांचा।
 
जपू नेमिला नेम गौरीहराचा॥
 
स्वये निववी तापसी चंद्रमौळी।
 
तुम्हां सोडवी राम हा अंतकाळीं॥८५॥
 
मुखी राम विश्राम तेथेचि आहे।
 
सदानंद आनंद सेवोनि आहे॥
 
तयावीण तो शीण संदेहकारी।
 
निजधाम हे नाम शोकापहारी॥८६॥
 
मुखी राम त्या काम बाधूं शकेना।
 
गुणे इष्ट धारिष्ट त्याचे चुकेना॥
 
हरीभक्त तो शक्त कामास भारी।
 
जगीं धन्य तो मारुती ब्रह्मचारी॥८७॥
 
बहू चांगले नाम या राघवाचे।
 
अती साजिरे स्वल्प सोपे फुकाचे॥
 
करी मूळ निर्मूळ घेता भवाचे।
 
जिवां मानवां हेंचि कैवल्य साचें॥८८॥
 
जनीं भोजनी नाम वाचे वदावें।
 
अती आदरे गद्यघोषे म्हणावे॥
 
हरीचिंतने अन्न सेवीत जावे।
 
तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावें॥८९॥
 
न ये राम वाणी तया थोर हाणी।
 
जनीं व्यर्थ प्राणी तया नाम कोणी॥
 
हरीनाम हें वेदशास्त्रीं पुराणीं।
 
बहू आगळे बोलिली व्यासवाणी॥९०॥
 
==९१-१००==
 
नको वीट मानूं रघुनायकाचा।
 
अती आदरे बोलिजे राम वाचा॥
 
न वेंचे मुखी सांपडे रे फुकाचा।
 
करीं घोष त्या जानकीवल्लभाचा॥९१॥
 
अती आदरें सर्वही नामघोषे।
 
गिरीकंदरी जाइजे दूरि दोषें॥
 
हरी तिष्ठतू तोषला नामघोषें।
 
विशेषें हरामानसीं रामपीसें॥९२॥
 
जगीं पाहतां देव हा अन्नदाता।
 
तया लागली तत्त्वता सार चिंता॥
 
तयाचे मुखी नाम घेता फुकाचे।
 
मना सांग पां रे तुझे काय वेंचे॥९३॥
 
तिन्ही लोक जाळूं शके कोप येतां।
 
निवाला हरु तो मुखे नाम घेतां॥
 
जपे आदरें पार्वती विश्वमाता।
 
म्हणोनी म्हणा तेंचि हे नाम आतां॥९४॥
 
अजामेळ पापी वदे पुत्रकामे।
 
तया मुक्ति नारायणाचेनि नामें॥
 
शुकाकारणे कुंटणी राम वाणी।
 
मुखें बोलतां ख्याति जाली पुराणीं॥९५॥
 
महाभक्त प्रल्हाद हा दैत्यकूळीं।
 
जपे रामनामावळी नित्यकाळीं॥
 
पिता पापरुपी तया देखवेना।
 
जनी दैत्य तो नाम मूखे म्हणेना॥९६॥
 
मुखी नाम नाहीं तया मुक्ति कैंची।
 
अहंतागुणे यातना ते फुकाची॥
 
पुढे अंत येईल तो दैन्यवाणा।
 
म्हणोनि म्हणा रे म्हणा देवराणा॥९७॥
 
हरीनाम नेमस्त पाषाण तारी।
 
बहु तारिले मानवी देहधारी॥
 
तया रामनामीं सदा जो विकल्पी।
 
वदेना कदा जीव तो पापरूपी॥९८॥
 
जगीं धन्य वाराणसी पुण्यराशी।
 
तयेमाजि आतां गतीं पूर्वजांसी॥
 
मुखे रामनामावळी नित्य काळीं।
 
जिवा हित सांगे सदा चंद्रमौळी॥९९॥
 
यथासांग रे कर्म तेंहि घडेना।
 
घडे धर्म तें पुण्य गांठी पडेना॥
 
दया पाहतां सर्व भूतीं असेना।
 
फुकाचे मुखी नाम तेंही वसेना॥१००॥
 
==१०१-११०==
 
जया नावडे नाम त्या यम जाची।
 
विकल्पे उठे तर्क त्या नर्क ची ची॥
 
म्हणोनि अति आदरे नाम घ्यावे।
 
मुखे बोलतां दोष जाती स्वभावें॥१०१॥
 
अती लीनता सर्वभावे स्वभावें।
 
जना सज्जनालागिं संतोषवावे॥
 
देहे कारणीं सर्व लावीत जावें।
 
सगूणीं अति आदरेसी भजावें॥१०२॥
 
हरीकीर्तनीं प्रीति रामीं धरावी।
 
देहेबुद्धि नीरूपणीं वीसरावी॥
 
परद्रव्य आणीक कांता परावी।
 
यदर्थीं मना सांडि जीवीं करावी॥१०३॥
 
क्रियेवीण नानापरी बोलिजेंते।
 
परी चित्त दुश्चित तें लाजवीतें॥
 
मना कल्पना धीट सैराट धांवे।
 
तया मानवा देव कैसेनि पावे॥१०४॥
 
विवेके क्रिया आपुली पालटावी।
 
अती आदरे शुद्ध क्रिया धरावी॥
 
जनीं बोलण्यासारिखे चाल बापा।
 
मना कल्पना सोडीं संसारतापा॥१०५॥
 
बरी स्नानसंध्या करी एकनिष्ठा।
 
विवेके मना आवरी स्थानभ्रष्टा॥
 
दया सर्वभूतीं जया मानवाला।
 
सदा प्रेमळू भक्तिभावे निवाला॥१०६॥
 
मना कोपआरोपणा ते नसावी।
 
मना बुद्धि हे साधुसंगी वसावी॥
 
मना नष्ट चांडाळ तो संग त्यागीं।
 
मना होई रे मोक्षभागी विभागी॥१०७॥
 
मना सर्वदा सज्जनाचेनि योगें।
 
क्रिया पालटे भक्तिभावार्थ लागे॥
 
क्रियेवीण वाचाळता ते निवारी।
 
तुटे वाद संवाद तो हीतकारी॥१०८॥
 
जनीं वादवेवाद सोडुनि द्यावा।
 
जनीं वादसंवाद सुखे करावा॥
 
जगीं तोचि तो शोकसंतापहारी।
 
तुटे वाद संवाद तो हीतकारी॥१०९॥
 
तुटे वाद संवाद त्याते म्हणावें।
 
विवेके अहंभाव यातें जिणावें॥
 
अहंतागुणे वाद नाना विकारी।
 
तुटे वाद संवाद तो हीतकारी॥११०॥
 
==१११-१२०==
 
हिताकारणे बोलणे सत्य आहे।
 
हिताकारणे सर्व शोधूनि पाहें॥
 
हितकारणे बंड पाखांड वारी।
 
तुटे वाद संवाद तो हीतकारी॥१११॥
 
जनीं सांगतां ऐकता जन्म गेला।
 
परी वादवेवाद तैसाचि ठेला॥
 
उठे संशयो वाद हा दंभधारी।
 
तुटे वाद संवाद तो हीतकारी॥११२॥
 
जनी हीत पंडित सांडीत गेले।
 
अहंतागुणे ब्रह्मराक्षस जाले॥
 
तयाहून व्युत्पन्न तो कोण आहे।
 
मना सर्व जाणीव सांडूनि राहे॥११३॥
 
फुकाचे मुखी बोलतां काय वेचे।
 
दिसंदीस अभ्यंतरी गर्व सांचे॥
 
क्रियेवीण वाचाळता व्यर्थ आहे।
 
विचारे तुझा तूंचि शोधूनि पाहे॥११४॥
 
तुटे वाद संवाद तेथें करावा।
 
विवेके अहंभाव हा पालटावा॥
 
जनीं बोलण्यासारिखे आचरावें।
 
क्रियापालटे भक्तिपंथेचि जावे॥११५॥
 
बहू शापिता कष्टला अंबॠषी।
 
तयाचे स्वये श्रीहरी जन्म सोशी॥
 
दिला क्षीरसिंधू तया ऊपमानी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥११६॥
 
धुरू लेकरु बापुडे दैन्यवाणे।
 
कृपा भाकितां दिधली भेटी जेणे॥
 
चिरंजीव तारांगणी प्रेमखाणी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥११७॥
 
गजेंदु महासंकटी वास पाहे।
 
तयाकारणे श्रीहरी धांवताहे॥
 
उडी घातली जाहला जीवदानी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥११८॥
 
अजामेळ पापी तया अंत आला।
 
कृपाळूपणे तो जनीं मुक्त केला॥
 
अनाथासि आधार हा चक्रपाणी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥११९॥
 
विधीकारणे जाहला मत्स्य वेगीं।
 
धरी कूर्मरूपे धरा पृष्ठभागी।
 
जना रक्षणाकारणे नीच योनी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥१२०॥
 
==१२१-१३०==
 
महाभक्त प्रल्हाद हा कष्टवीला।
 
म्हणोनी तयाकारणे सिंह जाला॥
 
न ये ज्वाळ विशाळ संनधि कोणी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥१२१॥
 
कृपा भाकिता जाहला वज्रपाणी।
 
तया कारणें वामनू चक्रपाणी॥
 
द्विजांकारणे भार्गवू चापपाणी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥१२२॥
 
अहल्येसतीलागी आरण्यपंथे।
 
कुडावा पुढे देव बंदी तयांते॥
 
बळे सोडितां घाव घालीं निशाणी।
 
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी॥१२३॥
 
तये द्रौपदीकारणे लागवेगे।
 
त्वरे धांवतो सर्व सांडूनि मागें॥
 
कळीलागिं जाला असे बौद्ध मौनी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥१२४॥
 
अनाथां दिनांकारणे जन्मताहे।
 
कलंकी पुढे देव होणार आहे॥
 
तया वर्णिता शीणली वेदवाणी।
 
नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी॥१२५॥
 
जनांकारणे देव लीलावतारी।
 
बहुतांपरी आदरें वेषधारी॥
 
तया नेणती ते जन पापरूपी।
 
दुरात्मे महानष्ट चांडाळ पापी॥१२६॥
 
जगीं धन्य तो रामसूखें निवाला।
 
कथा ऐकतां सर्व तल्लीन जाला॥
 
देहेभावना रामबोधे उडाली।
 
मनोवासना रामरूपीं बुडाली॥१२७॥
 
मना वासना वासुदेवीं वसों दे।
 
मना कामना कामसंगी नसो दे॥
 
मना कल्पना वाउगी ते न कीजे।
 
मना सज्जना सज्जनी वस्ति कीजे॥१२८॥
 
गतीकारणे संगती सज्जनाची।
 
मती पालटे सूमती दुर्जनाची॥
 
रतीनायिकेचा पती नष्ट आहे।
 
म्हणोनी मनाऽतीत होवोनि राहे॥१२९॥
 
मना अल्प संकल्प तोही नसावा।
 
सदा सत्यसंकल्प चित्तीं वसावा॥
 
जनीं जल्प विकल्प तोही त्यजावा।
 
रमाकांत एकांतकाळी भजावा॥१३०॥
 
==१३१-१४०==
 
भजाया जनीं पाहतां राम एकू।
 
करी बाण एकू मुखी शब्द एकू॥
 
क्रिया पाहतां उद्धरे सर्व लोकू।
 
धरा जानकीनायकाचा विवेकू॥१३१॥
 
विचारूनि बोले विवंचूनि चाले।
 
तयाचेनि संतप्त तेही निवाले॥
 
बरें शोधल्यावीण बोलो नको हो।
 
जनी चालणे शुद्ध नेमस्त राहो॥१३२॥
 
हरीभक्त विरक्त विज्ञानराशी।
 
जेणे मानसी स्थापिलें निश्चयासी॥
 
तया दर्शने स्पर्शने पुण्य जोडे।
 
तया भाषणें नष्ट संदेह मोडे॥१३३॥
 
नसे गर्व आंगी सदा वीतरागी।
 
क्षमा शांति भोगी दयादक्ष योगी॥
 
नसे लोभ ना क्षोम ना दैन्यवाणा।
 
इहीं लक्षणी जाणिजे योगिराणा॥१३४॥
 
धरीं रे मना संगती सज्जनाची।
 
जेणें वृत्ति हे पालटे दुर्जनाची॥
 
बळे भाव सद्बुद्धि सन्मार्ग लागे।
 
महाक्रुर तो काळ विक्राळ भंगे॥१३५॥
 
भयें व्यापिले सर्व ब्रह्मांड आहे।
 
भयातीत तें संत आनंत पाहे॥
 
जया पाहतां द्वैत कांही दिसेना।
 
भयो मानसीं सर्वथाही असेना॥१३६॥
 
जिवां श्रेष्ठ ते स्पष्ट सांगोनि गेले।
 
परी जीव अज्ञान तैसेचि ठेले॥
 
देहेबुद्धिचें कर्म खोटें टळेना।
 
जुने ठेवणें मीपणें आकळेना॥१३७॥
 
भ्रमे नाढळे वित्त तें गुप्त जाले।
 
जिवा जन्मदारिद्र्य ठाकुनि आले॥
 
देहेबुद्धिचा निश्चयो ज्या टळेना।
 
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना॥१३८॥
 
पुढें पाहता सर्वही कोंदलेसें।
 
अभाग्यास हें दृश्य पाषाण भासे॥
 
अभावे कदा पुण्य गांठी पडेना।
 
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना॥१३९॥
 
जयाचे तया चुकले प्राप्त नाहीं।
 
गुणे गोविले जाहले दुःख देहीं ॥
 
गुणावेगळी वृत्ति तेही वळेना।
 
जुने ठेवणे मीपणे आकळेना॥१४०॥
 
==१४१=१५०==
 
म्हणे दास सायास त्याचे करावे।
 
जनीं जाणता पाय त्याचे धरावे॥
 
गुरू अंजनेवीण तें आकळेना।
 
जुने ठेवणे मीपणे ते कळेना॥१४१॥
 
कळेना कळेना कळेना कळेना।
 
ढळे नाढळे संशयोही ढळेना॥
 
गळेना गळेना अहंता गळेना।
 
बळें आकळेना मिळेना मिळेना॥१४२॥
 
अविद्यागुणे मानवा उमजेना।
 
भ्रमे चुकले हीत ते आकळेना॥
 
परीक्षेविणे बांधले दृढ नाणें।
 
परी सत्य मिथ्या असें कोण जाणें॥१४३॥
 
जगी पाहतां साच ते काय आहे।
 
अती आदरे सत्य शोधुन पाहे॥
 
पुढे पाहतां पाहतां देव जोडे।
 
भ्रम भ्रांति अज्ञान हें सर्व मोडे॥१४४॥
 
सदा वीषयो चिंतितां जीव जाला।
 
अहंभाव अज्ञान जन्मास आला॥
 
विवेके सदा स्वस्वरुपी भरावे।
 
जिवा ऊगमी जन्म नाही स्वभावें॥१४५॥
 
दिसे लोचनी ते नसे कल्पकोडी।
 
अकस्मात आकारले काळ मोडी॥
 
पुढे सर्व जाईल कांही न राहे।
 
मना संत आनंत शोधूनि पाहे॥१४६॥
 
फुटेना तुटेना चळेना ढळेना।
 
सदा संचले मीपणे ते कळेना॥
 
तया एकरूपासि दुजे न साहे।
 
मना संत आनंत शोधूनि पाहें॥१४७॥
 
निराकार आधार ब्रह्मादिकांचा।
 
जया सांगतां शीणली वेदवाचा॥
 
विवेके तदाकार होऊनि राहें।
 
मना संत आनंत शोधूनि पाहे॥१४८॥
 
जगी पाहतां चर्मलक्षी न लक्षे।
 
जगी पाहता ज्ञानचक्षी निरक्षे॥
 
जनीं पाहता पाहणे जात आहे।
 
मना संत आनंत शोधूनि पाहे॥१४९॥
 
नसे पीत ना श्वेत ना श्याम कांही।
 
नसे व्यक्त अव्यक्त ना नीळ नाहीं॥
 
म्हणे दास विश्वासतां मुक्ति लाहे।
 
मना संत आनंत शोधूनि पाहे॥१५०॥
 
==१५१-१६०==
 
खरें शोधितां शोधितां शोधिताहे।
 
मना बोधिता बोधिता बोधिताहे॥
 
परी सर्वही सज्जनाचेनि योगे।
 
बरा निश्चयो पाविजे सानुरागे॥१५१॥
 
बहूतांपरी कुसरी तत्त्वझाडा।
 
परी अंतरी पाहिजे तो निवाडा॥
 
मना सार साचार ते वेगळे रे।
 
समस्तांमधे एक ते आगळे रे॥१५२॥
 
नव्हे पिंडज्ञाने नव्हे तत्त्वज्ञाने ।
 
समाधान कांही नव्हे तानमाने॥
 
नव्हे योगयागें नव्हे भोगत्यागें।
 
समाधान ते सज्जनाचेनि योगे॥१५३॥
 
महावाक्य तत्त्वादिके पंचकर्णे।
 
खुणे पाविजे संतसंगे विवर्णे॥
 
द्वितीयेसि संकेत जो दाविजेतो।
 
तया सांडूनि चंद्रमा भाविजेतो॥१५४॥
 
दिसेना जनी तेचि शोधूनि पाहे।
 
बरे पाहता गूज तेथेचि आहे॥
 
करी घेउ जाता कदा आढळेना।
 
जनी सर्व कोंदाटले ते कळेना॥१५५॥
 
म्हणे जाणता तो जनी मूर्ख पाहे।
 
अतर्कासि तर्की असा कोण आहे॥
 
जनीं मीपणे पाहता पाहवेना।
 
तया लक्षितां वेगळे राहवेना॥१५६॥
 
बहू शास्त्र धुंडाळता वाड आहे।
 
जया निश्चयो येक तोही न साहे॥
 
मती भांडती शास्त्रबोधे विरोधें।
 
गती खुंटती ज्ञानबोधे प्रबोधे॥१५७॥
 
श्रुती न्याय मीमांसके तर्कशास्त्रे।
 
स्मृती वेद वेदान्तवाक्ये विचित्रे॥
 
स्वये शेष मौनावला स्थीर पाहे।
 
मना सर्व जाणीव सांडून राहे॥१५८॥
 
जेणे मक्षिका भक्षिली जाणिवेची।
 
तया भोजनाची रुची प्राप्त कैची॥
 
अहंभाव ज्या मानसीचा विरेना।
 
तया ज्ञान हे अन्न पोटी जिरेना॥१५९॥
 
नको रे मना वाद हा खेदकारी।
 
नको रे मना भेद नानाविकारी॥
 
नको रे मना शीकवूं पूढिलांसी।
 
अहंभाव जो राहिला तूजपासी॥१६०॥
 
==१६१=१७०==
 
अहंतागुणे सर्वही दुःख होते।
 
मुखे बोलिले ज्ञान ते व्यर्थ जाते॥
 
सुखी राहता सर्वही सूख आहे।
 
अहंता तुझी तूंचि शोधुन पाहे॥१६१॥
 
अहंतागुणे नीति सांडी विवेकी।
 
अनीतीबळे श्लाघ्यता सर्व लोकी॥
 
परी अंतरी अर्वही साक्ष येते।
 
प्रमाणांतरे बुद्धि सांडूनि जाते॥१६२॥
 
देहेबुद्धिचा निश्चयो दृढ जाला।
 
देहातीत ते हीत सांडीत गेला॥
 
देहेबुद्धि ते आत्मबुद्धि करावी।
 
सदा संगती सज्जनाची धरावी॥१६३॥
 
मनें कल्पिला वीषयो सोडवावा।
 
मनें देव निर्गुण तो ओळखावा॥
 
मनें कल्पिता कल्पना ते सरावी।
 
सदा संगती सज्जनाची धरावी॥१६४॥
 
देहादीक प्रपंच हा चिंतियेला।
 
परी अंतरी लोभ निश्चित ठेला॥
 
हरीचिंतने मुक्तिकांता करावी।
 
सदा संगती सज्जनांची धरावी॥१६५॥
 
अहंकार विस्तारला या देहाचा।
 
स्त्रियापुत्रमित्रादिके मोह त्यांचा॥
 
बळे भ्रांति हें जन्मचिंता हरावी।
 
सदा संगती सज्जनांची धरावी॥१६६॥
 
बरा निश्चयो शाश्वताचा करावा।
 
म्हणे दास संदेह तो वीसरावा॥
 
घडीने घडी सार्थकाची धरावी।
 
सदा संगती सज्जनांची धरावी॥१६७॥
 
करी वृत्ती जो संत तो संत जाणा।
 
दुराशागुणे जो नव्हे दैन्यवाणा॥
 
उपाधी देहेबुद्धीते वाढवीते।
 
परी सज्जना केवीं बाधु शके ते॥१६८॥
 
नसे अंत आनंत संता पुसावा।
 
अहंकारविस्तार हा नीरसावा॥
 
गुणेवीण निर्गुण तो आठवावा।
 
देहेबुद्धिचा आठवू नाठवावा॥१६९॥
 
देहेबुद्धि हे ज्ञानबोधे त्यजावी।
 
विवेके तये वस्तुची भेटी घ्यावी॥
 
तदाकार हे वृत्ति नाही स्वभावे।
 
म्हणोनी सदा तेचि शोधीत जावे॥१७०॥
 
==१७१-१८०==
 
असे सार साचार तें चोरलेसे।
 
इहीं लोचनी पाहता दृश्य भासे॥
 
निराभास निर्गुण तें आकळेना।
 
अहंतागुणे कल्पिताही कळेना॥१७१॥
 
स्फुरे वीषयी कल्पना ते अविद्या।
 
स्फुरे ब्रह्म रे जाण माया सुविद्या॥
 
मुळीं कल्पना दो रूपें तेचि जाली।
 
विवेके तरी स्वस्वरुपी मिळाली॥१७२॥
 
स्वरुपी उदेला अहंकार राहो।
 
तेणे सर्व आच्छादिले व्योम पाहो॥
 
दिशा पाहतां ते निशा वाढताहे।
 
विवेके विचारे विवंचुनि पाहे॥१७३॥
 
जया चक्षुने लक्षिता लक्षवेना।
 
भवा भक्षिता रक्षिता रक्षवेना॥
 
क्षयातीत तो अक्षयी मोक्ष देतो।
 
दयादक्ष तो साक्षीने पक्ष घेतो॥१७४॥
 
विधी निर्मिती लीहितो सर्व भाळी।
 
परी लीहिता कोण त्याचे कपाळी॥
 
हरू जाळितो लोक संहारकाळी।
 
परी शेवटी शंकरा कोण जाळी॥१७५॥
 
जगी द्वादशादित्य हे रुद्र अक्रा।
 
असंख्यात संख्या करी कोण शक्रा॥
 
जगी देव धुंडाळिता आढळेना।
 
जगी मुख्य तो कोण कैसा कळेना॥१७६॥
 
तुटेना फुटेना कदा देवराणा।
 
चळेना ढळेना कदा दैन्यवाणा॥
 
कळेना कळेना कदा लोचनासी।
 
वसेना दिसेना जगी मीपणासी॥१७७॥
 
जया मानला देव तो पुजिताहे।
 
परी देव शोधूनि कोणी न पाहे॥
 
जगी पाहता देव कोट्यानुकोटी।
 
जया मानली भक्ति जे तेचि मोठी॥१७८॥
 
तिन्ही लोक जेथूनि निर्माण झाले।
 
तया देवरायासि कोणी न बोले॥
 
जगीं थोरला देव तो चोरलासे।
 
गुरूवीण तो सर्वथाही न दीसे॥१७९॥
 
गुरु पाहता पाहता लक्ष कोटी।
 
बहूसाल मंत्रावळी शक्ति मोठी॥
 
मनी कामना चेटके धातमाता।
 
जनी व्यर्थ रे तो नव्हे मुक्तिदाता॥१८०॥
 
==१८१-१९०==
 
नव्हे चेटकी चाळकू द्रव्यभोंदू।
 
नव्हे निंदकू मत्सरू भक्तिमंदू॥
 
नव्हे उन्मतू वेसनी संगबाधू।
 
जनी ज्ञानिया तोचि साधु अगाधू॥१८१॥
 
नव्हे वाउगी चाहुटी काम पोटी।
 
क्रियेवीण वाचाळता तेचि मोठी॥
 
मुखे बोलिल्यासारिखे चालताहे।
 
मना सद्गुरु तोचि शोधूनि पाहे॥१८२॥
 
जनी भक्त ज्ञानी विवेकी विरागी।
 
कृपाळु मनस्वी क्षमावंत योगी॥
 
प्रभु दक्ष व्युत्पन्न चातुर्य जाणे।
 
तयाचेनि योगे समाधान बाणे॥१८३॥
 
नव्हे तोचि जाले नसे तेचि आले।
 
कळो लागले सज्जनाचेनि बोले॥
 
अनिर्वाच्य ते वाच्य वाचे वदावे।
 
मना संत आनंत शोधीत जावे॥१८४॥
 
लपावे अति आदरे रामरुपी।
 
भयातीत निश्चित ये स्वस्वरुपी॥
 
कदा तो जनी पाहतांही दिसेना।
 
सदा ऐक्य तो भिन्नभावे वसेना॥१८५॥
 
सदा सर्वदा राम सन्निध आहे।
 
मना सज्जना सत्य शोधुन पाहे॥
 
अखंडीत भेटी रघूराजयोगू।
 
मना सांडीं रे मीपणाचा वियोगू॥१८६॥
 
भुते पिंड ब्रह्मांड हे ऐक्य आहे।
 
परी सर्वही स्वस्वरुपी न साहे॥
 
मना भासले सर्व काही पहावे।
 
परी संग सोडुनि सुखी रहावे॥१८७॥
 
देहेभान हे ज्ञानशस्त्रे खुडावे।
 
विदेहीपणे भक्तिमार्गेचि जावे॥
 
विरक्तीबळे निंद्य सर्वै त्यजावे।
 
परी संग सोडुनि सुखी रहावे॥१८८॥
 
मही निर्मिली देव तो ओळखावा।
 
जया पाहतां मोक्ष तत्काळ जीवा॥
 
तया निर्गुणालागी गुणी पहावे।
 
परी संग सोडुनि सुखे रहावे॥१८९॥
 
नव्हे कार्यकर्ता नव्हे सृष्टिभर्ता।
 
पुरेहून पर्ता न लिंपे विवर्ता॥
 
तया निर्विकल्पासि कल्पीत जावे।
 
परि संग सोडुनि सुखे रहावे॥१९०॥
 
==१९१-२००==
 
देहेबुद्धिचा निश्चयो ज्या ढळेना।
 
तया ज्ञान कल्पांतकाळी कळेना॥
 
परब्रह्म तें मीपणे आकळेना।
 
मनी शून्य अज्ञान हे मावळेना॥१९१॥
 
मना ना कळे ना ढळे रूप ज्याचे।
 
दुजेवीण तें ध्यान सर्वोत्तमाचे॥
 
तया खुण ते हीन दृष्टांत पाहे।
 
तेथे संग निःसंग दोन्ही न साहे॥१९२॥
 
नव्हे जाणता नेणता देवराणा।
 
न ये वर्णिता वेदशास्त्रा पुराणा॥
 
नव्हे दृश्य अदृश्य साक्षी तयाचा।
 
श्रुती नेणती नेणती अंत त्याचा॥१९३॥
 
वसे हृदयी देव तो कोण कैसा।
 
पुसे आदरे साधकू प्रश्न ऐसा॥
 
देहे टाकिता देव कोठे पहातो ।
 
परि मागुता ठाव कोठे रहातो॥१९४॥
 
बसे हृदयी देव तो जाण ऐसा।
 
नभाचेपरी व्यापकू जाण तैसा॥
 
सदा संचला येत ना जात कांही।
 
तयावीण कोठे रिता ठाव नाही॥१९५॥
 
नभी वावरे जा अणुरेणु काही।
 
रिता ठाव या राघवेवीण नाही॥
 
तया पाहता पाहता तोचि जाले।
 
तेथे लक्ष आलक्ष सर्वे बुडाले॥१९६॥
 
नभासारिखे रूप या राघवाचे।
 
मनी चिंतिता मूळ तुटे भवाचे॥
 
तया पाहता देहबुद्धी उरेना।
 
सदा सर्वदा आर्त पोटी पुरेना॥१९७॥
 
नभे व्यापिले सर्व सृष्टीस आहे।
 
रघूनायका उपमा ते न साहे॥
 
दुजेवीण जो तोचि तो हा स्वभावे।
 
तया व्यापकू व्यर्थ कैसे म्हणावे॥१९८॥
 
अती जीर्ण विस्तीर्ण ते रूप आहे।
 
तेथे तर्कसंपर्क तोही न साहे॥
 
अती गूढ ते दृश्य तत्काळ सोपे।
 
दुजेवीण जे खुण स्वामिप्रतापे॥१९९॥
 
कळे आकळे रूप ते ज्ञान होता।
 
तेथे आटली सर्वसाक्षी अवस्था॥
 
मना उन्मनी शब्द कुंठीत राहे।
 
तो रे तोचि तो राम सर्वत्र पाहे॥२००॥
 
==२०१-२१०==
 
कदा ओळखीमाजि दुजे दिसेना।
 
मनी मानसी द्वैत काही वसेना॥
 
बहूता दिसा आपली भेट जाली।
 
विदेहीपणे सर्व काया निवाली॥२०१॥
 
मना गुज रे तूज हे प्राप्त झाले।
 
परी अंतरी पाहिजे यत्न केले॥
 
सदा श्रवणे पाविजे निश्चयासी।
 
धरी सज्जनसंगती धन्य होसी॥२०२॥
 
मना सर्वही संग सोडुनि द्यावा।
 
अती आदरे सज्जनाचा धरावा॥
 
जयाचेनि संगे महादुःख भंगे।
 
जनी साधनेवीण सन्मार्ग लागे॥२०३॥
 
मना संग हा सर्वसंगास तोडी।
 
मना संग हा मोक्ष तात्काळ जोडी॥
 
मना संग हा साधना शीघ्र सोडी।
 
मना संग हा द्वैत निःशेष मोडी॥२०४॥
 
मनाची शते ऐकता दोष जाती।
 
मतीमंद ते साधना योग्य होती॥
 
चढे ज्ञान वैराग्य सामर्थ्य अंगी।
 
म्हणे दास विश्वासत मुक्ति भोगी॥२०५॥
 
॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥
 
मनाचे श्लोक संपूर्ण
( एकूण श्लोक २०५ )
 
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[[वर्ग:समर्थ रामदास स्वामी साहित्य]]
[[वर्ग:विकिस्रोत]]